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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: रहूगणः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

स सु॒तः पी॒तये॒ वृषा॒ सोम॑: प॒वित्रे॑ अर्षति । वि॒घ्नन्रक्षां॑सि देव॒युः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa sutaḥ pītaye vṛṣā somaḥ pavitre arṣati | vighnan rakṣāṁsi devayuḥ ||

पद पाठ

सः । सु॒तः । पी॒तये॑ । वृषा॑ । सोमः॑ । प॒वित्रे॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । वि॒ऽघ्नन् । रक्षां॑सि । दे॒व॒ऽयुः ॥ ९.३७.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:37» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:8» वर्ग:27» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब परमात्मा दुराचारियों से रक्षा का कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सुतः) स्वयम्भू (वृषा) सर्वकामप्रद (सः सोमः) वह परमात्मा (रक्षांसि विघ्नन्) राक्षसों का हनन करता हुआ और (देवयुः) देवताओं को चाहता हुआ (पीतये) विद्वानों की तृप्ति के लिये (पवित्रे अर्षति) उनके अन्तःकरण में विराजमान होता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा दैवी सम्पत्तिवाले पुरुषों के हृदय में आकर विराजमान होता है और उनके सव विघ्नों को दूर करके उनको कृतकार्य बनाता है। यद्यपि परमात्मा सर्वत्र विद्यमान है, तथापि वह देवभाव को धारण करनेवाले मनुष्यों को ज्ञान द्वारा प्रतीत होता है, अन्यों को नहीं। इस अभिप्राय से यहाँ देवताओं के हृदय में उसका निवास कथन किया गया है, अन्यों के हृदयों में नहीं ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मना राक्षसेभ्यो रक्षणमुपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (सुतः) स्वयम्भूः (वृषा) सर्वकामप्रदः (सः सोमः) सः परमात्मा (रक्षांसि विघ्नन्) राक्षसान् विनाशयन् (देवयुः) देवान् इच्छन् च (पीतये) विदुषां तृप्तये (पवित्रे अर्षति) तेषामन्तःकरणेषु विराजते ॥१॥